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ए꣣ष꣡ शृङ्गा꣢꣯णि꣣ दो꣡धु꣢व꣣च्छि꣡शी꣢ते यू꣣थ्यो꣣꣬३꣱वृ꣡षा꣢ । नृ꣣म्णा꣡ दधा꣢꣯न꣣ ओ꣡ज꣢सा ॥१२७१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एष शृङ्गाणि दोधुवच्छिशीते यूथ्यो३वृषा । नृम्णा दधान ओजसा ॥१२७१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣षः꣢ । शृ꣡ङ्गा꣢꣯णि । दो꣡धु꣢꣯वत् । शि꣡शी꣢꣯ते । यू꣣थ्यः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । नृ꣣म्णा꣢ । द꣡धा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१२७१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1271 | (कौथोम) 5 » 2 » 3 » 6 | (रानायाणीय) 10 » 2 » 1 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में साँड का वर्णन करते हुए देहधारी जीवात्मा का वर्णन है

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—साँड के पक्ष में। (ओजसा) प्रबलता के साथ (नृम्णा) बलों को (दधानः) धारण करता हुआ (एषः) यह (यूथ्यः) गौओं के समूह में रहनेवाला (वृषा) साँड (शृङ्गाणि) सींगों को (दोधुवत्) कँपाता हुआ (शिशीते) पर्वत, खम्भे आदि पर तेज कर रहा है ॥ द्वितीय—मनुष्य के पक्ष में। (ओजसा) बल से (नृम्णा) धन को (दधानः) कमाता हुआ (एषः) यह (यूथ्यः) सामाजिक तथा (वृषा) अन्यों पर सुख की वर्षा करनेवाला मानव (दोधुवत्) दोषों को कँपाता हुआ (शृङ्गाणि) धर्म, अर्थ, काम मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का (शिशीते) अभ्यास करता है ॥६॥ यहाँ श्लेष है, प्रथम अर्थ में स्वभावोक्ति अलङ्कार है ॥६॥

भावार्थभाषाः -

जैसे बलवान् साँड स्वभाव के अनुसार सिर को कँपाता हुआ अपने सींगों को पर्वत आदि पर तीक्ष्ण करता है, वैसे ही बलवान् मनुष्य, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को तीक्ष्ण करे ॥६॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ वृषभवर्णनमुखेन देहधारिणं जीवात्मानं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—वृषभपक्षे। (ओजसा) प्राबल्येन (नृम्णा) नृम्णानि बलानि। [नृम्णमिति बलनाम। निघं० २।९।] (दधानः) धारयन् (एषः) अयम् (यूथ्यः) यूथार्हः (वृषा) वृषभः (शृङ्गाणि) विषाणानि (दोधुवत्) कम्पयन् (शिशीते) पर्वतस्तम्भादौ तीक्ष्णीकरोति ॥ द्वितीयः—मनुष्यपक्षे। (ओजसा) बलेन (नृम्णा) नृम्णानि धनानि। [नृम्णमिति धननाम। निघं० २।१०।] (दधानः) अर्जयन् (एषः) अयम् (यूथ्यः) यूथार्हः, सामाजिकः (वृषा) अन्येषु सुखवर्षको मानवः (दोधुवत्) दोषान् कम्पयन् (शृङ्गाणि) चतुरः पुरुषार्थान् धर्मार्थकाममोक्षरूपान्। [चत्वारि शृङ्गा२ ऋ० ४।५८।३, य० १७।९१ इति वचनात्।] (शिशीते) अभ्यस्यति ॥६॥ अत्र श्लेषः, प्रथमेऽर्थे च स्वभावोक्तिरलङ्कारः ॥६॥

भावार्थभाषाः -

यथा बलवान् वृषभः स्वभावानुसारं शिरः कम्पयन् स्वकीये शृङ्गे पर्वतादौ तीक्ष्णयति तथा बलवान् मानवो धर्मार्थकाममोक्षान् तीक्ष्णयेत् ॥६॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१५।४। २. चत्वारो वेदा नामाख्यातोपसर्गनिपाता विश्वतैजसप्राज्ञतुरीय- धर्मार्थकाममोक्षाश्चेत्यादीनि शृङ्गाणि—इति ऋ० ४।५८।३ भाष्ये द०।